तमिल सुपरस्टार सूर्या की फिल्म ‘जय भीम’ एमेजॉन प्राइम पर रिलीज हो गई है। ये फिल्म काफी समय से सुर्खियों में थी। अगर आप फिल्म देखने का प्लान बना रहे हैं तो पहले बॉलीवुड लोचा के इस रिव्यू को पढ़ लीजिए।
जब कोई फ़िल्म अपने पहले ही सीन के साथ आपको इस कदर जज्ब कर ले कि आप उसमें हो रही घटनाओं, अत्याचारों, दुःख, दर्द को उसके खत्म होने तक ही नहीं बल्कि कई दिनों तक उसे अपने जेहन में बैठाए रख पाते हैं, तो ऐसी फिल्में अपने आप ही सफल हो जाती हैं।
फिल्म की कहानी में भारत के तमिलनाडु राज्य का एक गांव है। जहां आदिवासी रहते हैं। वहां की एक सच्ची घटना पर आधारित यह फ़िल्म आदिवासियों, दलितों पर हो रहे शोषण को इस कदर निर्ममता के साथ पेश करती है कि उसे देखते हुए आपके दिल में हूक उठने लगें। आपका दिल स्वत: नरम पड़ता जाता है। गर्भवती महिलाओं से लेकर बच्चे, मर्द सभी इस तरह पुलिस की लाठियों के शिकार बन रहे हैं जैसे मानों कोई सालों से पड़े किसी गंदे बिस्तर को झाड़कर उसकी धूल साफ कर रहा हो। मानों जैसे ग्रामीण महिला जैसे किसी गंदे कपड़े को धोते समय पत्थर पर पटक-पटक कर धो रही हो।
सांप पकड़ने वाला, चूहे मारकर खा जाने वाला यह आदिवासी समुदाय अपने हकों के लिए जब किसी निर्मल हृदय वाले वकील के सहारे न्याय की आवाज उठाता है। उस इंसाफ की आग में जलता है। न केवल जलता है बल्कि दर्शकों को भी जलाता है। तो फ़िल्म जो संदेश आपको देना चाहती है उसमें वह कामयाब हो जाती है। 2000 सालों से भी ज्यादा समय से दबी, पिछड़ी, कुचली, मर्दन की गई यह जाति जब पढ़ने चलती है। साफ पानी, शिक्षा, अपने लिए नागरिकता की मांग करती है तब उसे खानी पड़ती है लाठियां। मतलब कुलमिलाकर फिल्म में जिस तरह की दरिंदगी दलित–आदिवासियों के साथ होते हुए दिखाई गई है। वैसी हैवानियत असल समाज में, इसी देश में, देश के आजाद होने के 75 सालों बाद भी होते हुए गाहे-बगाहे नजर आ ही जाती हैं।
क्या आज जो हम आजादी का अमृतमहोत्सव मना रहे हैं उसमें सब ठीक हो गया है? क्या अब कोई दलित दलित नहीं रहा? कोई सवर्ण भी दलित नहीं हो जाता? कोई दलित भी सवर्ण नहीं हो जाता? क्या अब सबको बराबरी, न्याय, हक मिलने आरम्भ हो गए? क्या देश से गरीबी, भुखमरी, लाचारी, बेबसी, बेरोजगारी खत्म हो गई? अगर इन सबके जवाब आपके सकारात्मक पास हैं तो यह फ़िल्म आपको नहीं देखनी चाहिए। बल्कि अच्छा हो कि आप कोई भी ऐसी फिल्में न देखें, अच्छा हो आप कभी अपने लिए न्याय की गुहार न लगाएं, अच्छा हो कि आप पहाड़ों की सैर पर निकल जाएं, अच्छा हो कि आप उन पहाड़ों की गुफाओं, कंदराओं में अपने लिए मोक्ष प्राप्त करें। क्योंकि आप उस दुनिया में रहने के काबिल ही नहीं जो दुनिया उन दलितों ने बनाई है। जिनके हाथों से रखी गई सैकड़ों-हजारों, लाखों इमारतों की मजबूत नींव जिन्होंने रखी है। और जो खुद नींव बनकर आपको कंगूरे की भांति चमकने का अवसर दे रहे हैं।
इसके उल्ट आपमें जरा भी दया, मानवता, करुणा, प्रेम, स्नेह, दुलार, भावनाओं का ज्वारभाटा है तो फिल्म को देखते हुए आपको वो पीड़ा महसूस होती जो असंख्य दलित–आदिवासी हर रोज़ सह रहे होते हैं आज भी न जाने कहाँ, कब, कैसे, क्यों। फ़िल्म ‘जय भीम‘ केवल आदिवासी ‘इरुलुर’ समुदाय के एक जोड़े ‘सेंगगेनी’ और ‘राजकन्नू’ की कहानी नहीं है। बल्कि यह उनके बहाने से पूरे आदिवासी-दलित समुदाय का वह कड़वा सच है जिसे हलक से नीचे उतरने में किसी के भी चुभन महसूस होने लगे।
फ़िल्म के डायरेक्टर टी. जे. गंणवेल ने ट्राइबल लोगों को, उनकी मासूमियत और सच्चाई को फिल्म में अच्छी तरह से दिखाया है। इस लिहाज से उन्हें पूरे नंबर मिलने चाहिए। फिल्म के सभी करेक्टर्स ब्लैक एंड व्हाइट में हैं इस वजह से वे रियल लाइफ इंसिडेंट कहानी होने के कारण आपको ज्यादा रियलिस्टिक लगते हैं। कोर्ट के सीन कुछ कम या और प्रभावशाली बनाए जा सकते थे। मेकअप आर्टिस्ट्स का काम उम्दा है। कैमरा ठीक है। सिनेमेटोग्राफी कुछ जगह हल्की पड़ती है लेकिन एडिटर की कैंची इतनी सफाई से चलती हुई दिखाई देती है कि उसमें वे सब कमियां छुप जाती हैं।
‘मनिकंदन’, ‘लिजो मोल जोस’ ने ट्राइबल कपल के तौर पर अच्छा काम किया है। लिजो इस फ़िल्म में सबसे उम्दा और बड़ी स्टार कास्ट के रूप में नजर आती हैं। सूर्या के काम को देखकर आप अपनी नजरें नहीं हटा पाते। उन्हें देखकर आपको लगेगा कि रियल लाइफ में भी वे वकील ही हैं।
90 के दशक को बखूबी पकड़ते हुए यह फ़िल्म तमिल, हिंदी दोनों भाषाओं में अमेजन प्राइम भईया के हाथों से आप लेकर देखिए आपकी दिवाली में कुछ बदलाव जरूर आएंगे इस बार फिर। अब तक इस फ़िल्म को 9.7 आई एम डी बी स्टार रेटिंग भी मिल चुकी है। जो इस साल रिलीज हुई फिल्मों में सबसे अधिक स्टार रेटिंग पाने वालों के पायदान में आपको पहले नंबर पर खड़ी नजर आएगी, वो भी मजबूती के साथ।
अपनी रेटिंग – 4 स्टार