Movie Review Dada Lakhmi: हिंदुस्तान के अब तक के सिनेमाई इतिहास में इतनी बेहतरीन फ़िल्म शायद ही कभी बनेगी। कारण जब कोई फ़िल्म आपको इस क़दर अभिभूत कर दे कि आप उस फ़िल्म का रिव्यू एक दर्शक के नजरिये के साथ-साथ समीक्षक के नजरिये से भी एक जैसा ही लिखने का सोचें तो यह उस सिनेमा के प्रति मान, अभिमान और कहीं-न-कहीं गुमान करने की सीढ़ी तक आपको ले ही आता है।
हरियाणवी फ़िल्म ‘दादा लखमी’ एक ऐसी क्षेत्रीय भाषा की फ़िल्म है जिसमें लम्बे समय तक खाप पंचायतों का दबदबा रहा है। एक जमाने में हुए थे ‘पंडित लखमी चंद’ जिन्हें हरियाणा का ‘सांग सम्राट’, ‘भविष्यवक्ता’ , कबीरदास’ , ‘शेक्सपीयर’ ,’सूर्य कवि’ भी कहा गया। वे दादा लखमी चंद जिनकी बदौलत आज भी हरियाणा में रागणियां गाईं जाती हैं। वे संगीत सम्राट जिन्होंने हरियाणा समाज को ही नहीं बल्कि उस समय समस्त देश को जो भविष्य की तस्वीर दिखाई थी, वह आज कहीं-न-कहीं शब्दशः सच साबित होती आ रही है।
दादा लखमी के जीवन को सच्ची श्रद्धांजलि देने के नाते इस फ़िल्म में एक दर्जन के करीब रागिणी भी रखी गईं हैं। जब दादा कहते हैं-
‘ना तो कोई इस दुनिया ते कतई गया सै और ना ही कोई सदा रह्या सै। सारा पंच तत्व का खेल सै, कोई भी चीज पूर्ण रूप तै समाप्त नहीं होती। केवल रूप बदल जा सै, यहां तक की मेरे ये शब्द जो मैं अभी बोल रहया हूँ वो भी अंनत काल तक इस ब्रह्मांड में गूंजते रहेंगे।’
वाक़ई यह सच भी साबित हुआ कि उनकी पीढ़ी और उन्हें मानने-जानने वाले उन्हें किसी देवता से कम भी नहीं समझते। क्योंकि उनके गले में सरस्वती थी इसलिए उन्होंने ही दुनिया को सिखाया सबसे पहले कि संगीत और शोर में फर्क होता है। जब दादा का एक संवाद और सुनने को मिलता है – ‘तानसेन तो बहुत बनो कदी कानसेन भी बण लिया करो।’ तो इस पंक्ति के मायने गहरे हो जाते हैं। इस फ़िल्म की कहानी लिखने वाले ‘राजू मान’ को भी इसका बराबर श्रेय जाता है।
‘पंख कतर दिए जावें तो क्यों कर उड़े परिंदा।
मां की दया ते होता देख्या मरया होया भी जिंदा।।’
‘दादा लखमी’ फ़िल्म के ख़त्म होते-होते आने वाला यह दोहा मानव जीवन के भी आध्यात्मिक पक्ष को दिखाता है।
दरअसल इस फ़िल्म के हर एक पहलू पर लिखा जा सकता है। सबसे पहले तो स्वयं दादा लखमी के जीवन पर ही पन्ने-दर-पन्ने रंगे जा सकते हैं। उसके बाद इस फ़िल्म में अभिनय कर रहे हरेक पात्र पर, इसके बाद इस फ़िल्म की टेक्निकल टीम से जुड़े हर सदस्य पर। दरअसल लिखा तो उन पर भी जाना चाहिए जिनका इस फ़िल्म के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हर तरीके से योगदान रहा हो या भूमिका इस फ़िल्म में रही हो।
सबसे पहले बात इस फ़िल्म में गाई गई रागिणियों की क्या ही कहने। किसी एक रागिणी पर लिखें तो दूसरी छूट जाए और दूसरी पर लिखा जाए तो पहली छूट जाए। हर राणिनी जैसे दादा लखमी के जीवन के और करीब आपको ले आती है। न भी लाए तो कम-से-कम उस पवित्र आत्मा के प्रति अपना माथा श्रद्धा से नत करने को मजबूर कर देती है। यह फ़िल्म अपने हर एक एंगल से इतनी मजबूत और शानदार बनी है कि जिसके चलते इसे अब तक देश-दुनिया में जो 70 से भी ज्यादा नामी-गिरामी फ़िल्म फेस्टिवल्स में इनाम मिले हैं हर कैटेगरी में वे ज्यूरी के एकदम सही फैसले कहे जाने चाहिए। अगर जिन-जिन फेस्टिवल्स में इसने इनाम जीते हैं उनके नाम भी लिखे जाएं तो कम से कम चार पेज तो उसी में भर जाएंगे।
‘जगत सै यो रैन का सपना रे’ , ‘चालो उस देस में’ , ‘कलियुग’ , ‘लाख-चौरासी’ , ‘सोच समझके’ , ‘भर्ती’ ,गुरु भक्ति’ सम्बन्धी सभी राणिनी मन को मोहती ही नहीं बल्कि आपको अपने वश में कर लेती हैं।
एक्टिंग के मामले में लीड रोल में दादा लखमी के बचपन से लेकर बुढ़ापे तक के रोल में आने वाले अलग-अलग एक्टर ‘योगेश वत्स’, ‘हितेश शर्मा’ और खुद निर्देशक ‘यशपाल शर्मा’ अभिनय की उन ऊंचाइयों को छूते नजर आते हैं जहां से इन सभी से बहुत कुछ सीखने की मिलेगा। ‘मेघना मलिक’ दादा लखमी की मां के किरदार में इस कदर डूबी हुई नजर आती हैं कि लगता ही नहीं वे एक्टिंग कर रही हैं। दादा लखमी के पिता बने ‘मुकेश मुसाफिर’ ने भी आला दर्जे का अभिनय किया है। ‘राजेन्द्र गुप्ता’ लखमी के गुरु के रूप में सूरदास होने के बाद भी लखमी को जो ज्ञान देते हैं वैसा ही ज्ञान आज भी उनसे लिया जा सकता है। दरअसल जब-जब गुरु गुड़ और चेला चीनी हो जाता है तब-तब बनते हैं ‘दादा लखमी।’ फ़िल्म की हर स्टार कास्ट दूसरी स्टार कास्ट से अभिनय के मामले में एक-दूसरे को पछाड़ती नजर आती है।
दूसरा इस फ़िल्म का सबसे बड़ा मजबूत पक्ष इसका म्यूजिक है। ‘उत्तम सिंह’ ने इस डिपार्टमेंट में वो जान फूंकी है जिससे फ़िल्म को देखते-सुनते हुए आप इसमें भरपूर डुबकियां लगा सकते हैं। उन्होंने इससे पहले ‘पिंजर’ ,दिल तो पागल है’ , ‘गदर-एक प्रेम कथा’ जैसी फिल्मों को उम्दा बनाने में अपना सबकुछ दिया है। वही जादू इस फ़िल्म में भी वे बिखरते हैं बल्कि ये कहें यह उनका अब तक सर्वश्रेष्ठ काम है तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
मेकअप,लुक, सिनेमैटोग्राफी, साउंड, बैकग्राउंड स्कोर, कास्टिंग, ड्रेस डिजाइन, लोकेशन, कैमरा तथा सांग आदि के हर दृश्य के साथ यह फ़िल्म एक सौंधी सी खुशबू भी अपने साथ बहाती जाती है। जिस तरह का सेट, हरियाणा के म्यूजिक की समझ, रागिणी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले हर इंस्ट्रयूमेंट के साथ-साथ हरियाणा के कल्चर, लोकगीत, लोक किस्सों को लेकर जैसे-जैसे यह फ़िल्म अपने अंत तक आती है तो आपका इसे देखते हुए ढाई घण्टे का समय देना जीवन में देखी गई अब तक की सभी फिल्मों में दिए गए समय की भी वसूली करवा ले जाती है ऐसी फिल्में।
हमें गर्व होना चाहिए कि हम उस दौर में हैं जब चमक खो चुके हरियाणवी सिनेमा को पुनर्जीवित कराने के लिए निर्देशक ‘यशपाल शर्मा’ यह फ़िल्म लेकर आए हैं। जब ऐसा सिनेमा बनकर सामने आने लगेगा तो क्या मजाल दादा लखमी के दिखाए रास्ते पर से यह दुनिया भटकने लगे। ऐसी फिल्मों के लिए जितना लिखा जाए कम होता है। जितने अवॉर्ड इनकी झोली में भरे जाएं कम पड़ेंगे। इस फ़िल्म को भारत सरकार द्वारा नेशनल अवॉर्ड देने के साथ-साथ पूरे भारत में टैक्स फ्री किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं बल्कि भारत सरकार के अलावा हरियाणा सरकार कुछ इस दिशा में कदम उठाकर इसका खुद से प्रचार-प्रसार करे तो यह अवश्य ही फ़िल्म ऑस्कर अवॉर्ड में केवल भेजी ही नहीं जायेगी बल्कि वहां से कोई-न-कोई अवॉर्ड भी अपने नाम कर ही लाएगी।
ऐसी फिल्में एक्टिंग, डायरेक्शन, सिनेमैटोग्राफी, म्यूजिक, मेकअप, लुक, सेट, लोकेशन आदि सभी क्षेत्र में आपको न केवल सिनेमा के विभिन्न चैप्टर सिखाती हैं बल्कि आपको दादा लखमी पर गर्व करने के साथ-साथ इसे बनाने वालों को दाद देने पर विवश करती है। ऐसी फिल्में आपको निःशब्द करती हैं। जब भी यह फ़िल्म रिलीज हो आप पहली ही फुर्सत में देखिएगा औरों को भी दिखाएगा। वैसे तो ऐसी फिल्में किसी भी रेटिंग से परे की होती हैं लेकिन रेटिंग देना हमारा काम है। एक बात और दरअसल समय भी उन्हीं को चुनता है जिनके कंधों में साहस होता है। तो ऐसी फिल्म बनाने के लिए निःसन्देह दादा लखमी ने इन्हीं सबको चुना हो।
यूँ तो इस फ़िल्म में आने वाली हर रागिणी हर लाइन आपकी आंखें भिगोती हैं लेकिन इस बंध को सुनते हुए आप भीतर से कलप भी उठें लाजमी है-
लाख-चौरासी खतम हुई बीत कल्प-युग चार गए /
इतनी कहै-कै लखमीचंद भी मरे नहीं, दड़ मार गए।
नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए॥
अपनी रेटिंग – 5 स्टार