इंटरव्यू

इंटरव्यू : कैसे बनी “सुमन कुमार” के सपनों की पहली फिल्म

Director Suman Kumar Interview सुमन कुमार का इंटरव्यू
Written by Tejas Poonia

Director Suman Kumar Interview सुमन कुमार का इंटरव्यू

Director Suman Kumar Interview सुमन कुमार का इंटरव्यू: सुमन कुमार झारखण्ड में जन्में, दिल्ली विश्वविद्यालय से गोल्ड मैडल हासिल किया और इंजीनियरिंग का एक छात्र देश के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म संस्थान एफ टी आई आई में कैसे पहुंचा। कैसे इंजीनियरिंग के छात्र के भीतर का फिल्म मेकर और साहित्य प्रेमी अपने छात्र जीवन की पहली फिल्म बना पाया आईये जानते हैं इस बार के बॉलीवुड लोचा इंटरव्यू में। साथ ही आप भी फिल्मों पर लिखना चाहते हैं या कुछ लेख, इंटरव्यू भेजना चाहते हैं तो हमारे फेसबुक पेज के माध्यम से सम्पर्क कर सकते हैं। तब तक बने रहिये हमारे साथ क्योंकि इस फिल्म के रिव्यू के साथ ही मैं हाजिर होऊंगा और अन्य रिव्यू तथा इंटरव्यू लेकर आपके बीच।

सवाल- अपने बचपन और शिक्षा दीक्षा के बारे में बताएं।

जवाब – मेरी पैदाईश झारखंड (तत्काल बिहार) के पाकुड़ जिले के महेशपुर गाँव की है। हालांकि बॉर्डर पर होने के कारण बंगाल, बिहार ,झारखण्ड की मिली जुली सभ्यता का असर बचपन से ही रहा। बचपन से पढ़ने लिखने में बढ़िया था, नाटक और क्रिकेट का शौक अलग से, पर गाँव के कुछ दोस्तों की संगत से थोड़ा बिगड़ने (जैसे समोसे-अंडे खाने के लिए माँ पिताजी की जेब से चोरी करना) भी लगा था। इस कारण मुझे बाहर भेजने का फैसला किया गया। पहले मेरा चयन सैनिक स्कूल , तिलैया में हुआ पर रैगिंग और हाथ टूटने की वजह से मुझे वहाँ से वापस बुला लिया गया। साल भर बाद ही पाकुड़ में लाला सर गुरुदेव के आश्रम में कठिन छात्रावास करते हुए प्रतिष्ठित नेतरहाट विद्यालय की प्रवेश परीक्षा पास की और फिर उसके बाद से अब तक बाहर ही हूँ। कह सकते हैं कि पीछे मुड़कर देखने का समय ही नही मिला।

अक्सर बाहर जाकर बच्चे बिगड़ते हैं, बुरी आदत लगाते हैं, मेरे साथ उल्टा हुआ और वहाँ दसवीं 90% अंकों के साथ उत्तीर्ण करते हुए 12वीं डी ए वी कपिलदेव पबलिक स्कूल, राँची से पूरी की। नेतरहाट में रहते हुए नाटकों में अभिनय का भूत , राँची में भी बदस्तूर जारी रहा और झारखंड सरकार वर्ष 2011 का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का रंगमंच पुरस्कार मुझे प्राप्त हुआ। बचपन मे अच्छी और बुरी यादें बहुत थी और ये सब मिली जुली सी रहीं। पर सबसे बुरी याद मेरी माँ की आकस्मिक मृत्यु (अगस्त 2007) है। अच्छी यादों की बात करें तो भी जीवन में कई अच्छी यादें हैं पर इस घटना के बाद मैं पूरी तरह बदल गया , 14 वर्ष की आयु में ही समय से ज्यादा मैच्योर हो गया।

Director Suman Kumar Interview सुमन कुमार का इंटरव्यू

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12वीं के बाद इंजीनियरिंग पास करते हुए भी केवल साहित्य और नाटक की चाहत मुझे सब छोड़कर दिल्ली विश्वविद्यालय ले आयी। जहां जीवन की नई नई गतिविधियों , क्रियाकलापों और अनुभवों ने मुझे सदा अच्छा करने की प्रेरणा दी। राजधानी कॉलेज से 2016 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की जिसमें आकादमिक स्वर्ण पदक भी शामिल है। 2018 में ही रामजस कॉलेज से प्रथम श्रेणी से स्नातकोत्तर सम्पन्न हुआ। इस दौरान पढ़ाई के अलावा नियमित तौर पर नाटक में अभिनय ,निर्देशन करता रहा । 16-18 के बीच दिल्ली के अलग अलग समूहों से कई नाटक किये जो देश मे 14 अलग अलग जगह प्रस्तुत और पुरस्कृत किये गए जिनमे भारत रंग महोत्सव और थिएटर ओलंपिक्स भी शामिल रहे। इनके साथ ही दिल्ली की कई अन्य अकादमियों के साथ अन्य साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों मे भी शामिल रहा, भाग लेता रहा एवं विभिन्न विधाओं में अपना योगदान देता रहा। 2015 मेंअपने कॉलेज की नाट्य संस्था “त्र्यम्बकम” की स्थापना की और 16-17 सत्र के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) का कल्चरल सेक्रेटरी यानी सांस्कृतिक सचिव भी रहा।

सवाल – पढ़ाई में इतना अव्वल होने पर भी आपने फिल्म क्षेत्र में जाने का रास्ता चुना ऐसा क्यों?

सर्जनात्मकता पढ़ाई तो होती ही है और एक सतत प्रक्रिया है, पर मुझे लगता है हमारे पढ़े हुए चीजों का जब तक प्रैक्टिकल या प्रायोगिक उपयोग न हो तो वो किसी काम की नही। फिल्में कम समय में किसी भी सशक्त बात को असरदार तरीके से बयाँ करने का सबसे मजबूत आधार है। मैं साहित्य में कहानियाँ, उपन्यास पढ़ता था पर उनका दृश्य रूपांतरण फिल्मों में बहुत कम देखा या इक्का दुक्का। लगता था अरे यह कहानी तो फ़िल्म में बदली जानी चाहिए और इसी बाबत मुझको पढ़ते हुए विजुअल ढाँचा अपने सामने नजर आता। यही मूल था फ़िल्म निर्देशन की तरफ जाने का , जिसकी चाहत मुझे 2018 में एफ टी आई आई (भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान) ले गयी और सौभाग्य से पहली दफ़े ही कठिन प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार मेरा चयन वहाँ TV direction के लिए हो गया। जहाँ पर फ़िल्म निर्माण की बारीकियों को सीखने समझने, वर्ल्ड सिनेमा को देखने , कला और क्षेत्रीय फिल्मों की महत्ता समझने के साथ साथ मैंने ये आत्मसात किया कि साहित्य में सब कुछ लिखा हुआ सिनेमा में परिणत नही हो सकता। उस अमुक कहानी को दृश्य श्रव्य विधा (audo visual form) में ढालने के लिए कई बार उसके मूल कथ्य, परिवेश, आधार ,संरचना सबमें क्रमिक बदलाव करने होते हैं, जो कि आवश्यक होते हैं। कुल मिलाकर कहें कि साहित्य में पढ़ी कहानियों को पर्दे पर दिखाने ,प्रदर्शित करने की चाह मुझे फ़िल्म निर्माण की ओर ले गयी।

सवाल – फिल्म क्षेत्र में अभी आपकी शुरुआत हुई है एक दशक बाद आप अपने आपको कहाँ देखते हैं या देखना पसंद करेंगे इस क्षेत्र में?

अगर इसी क्षेत्र में मेहनत जारी रही तो कहीं आगे पर मर्यादित और सतही रुप से ईमानदार प्रयासों के साथ। ऐसा कोई बड़बोलापन नही है, ऐसा इसीलिए है कि मैं खुद को जानता हूँ और अपने प्रयासों के लिये ईमानदार हूँ। हालांकि कई समस्याएं ,चुनौतियां आएंगी पर उनसे दो-दो हाथ करके ही आगे बढ़ना, यही तो जिंदगी है।

Director Suman Kumar Interview सुमन कुमार का इंटरव्यू

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सवाल – एफ टी आई, एन एस डी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में बहुत से लोगों की इच्छा होती है पढ़ने तथा वहाँ से कुछ सीखने की तो ऐसे में वे कैसे प्रवेश पा सकते हैं क्या पूर्व नियोजित प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए।

कई बार तैयारियों में साहित्य विद्यार्थी, थिएटर जगत से जुड़ाव, लिखना पढ़ना ये सब अपने आप काम कर जाता है। साहित्य से जुड़ाव आपको रचनात्मकता, सृजनात्मकता के आयाम से परिचित करता है, सिनेमा देखते रहने ,समझने का अनुराग (विशेष रूप से वर्ल्ड सिनेमा, भारतीय क्षेत्रीय कला सिनेमा) और बेसिक फ़िल्म मेकिंग की समझ आपको इस दिशा में और ज्यादा परिपक्व बनाती है साथ ही दिशा निर्देश भी देती है। वैसे आजकल कई जगह कुछ प्राइवेट कोचिंग सेन्टर भी इसकी तैयारी कराते हैं पर मैं खुद की तैयारियों द्वारा ज्यादा विश्वास रखता हूँ जिसमे फ़िल्म निर्माण से जुड़े लोगों , समीक्षकों का मार्गदर्शन भी शामिल है।

एफ टी आई अपने आप मे केवल संस्थान नही बल्कि सिने शिक्षा का संसार है। न सिर्फ आप फ़िल्म मेकिंग की बारीकियां सीखते हैं बल्कि प्रायोगिक जीवन की कई समस्यायों- मुश्किलातों से दो-दो हाथ करने , जीवन के नए अनुभवों से साक्षात्कार करने और अपने व्यक्तित्व के चतुर्दिक विकास करने जैसी चीजों से भी अवगत होते हैं। आप गलतियां करने को स्वतंत्र हैं पर उनसे सीखकर कुछ बेहतर करते-सीखते जाने की प्रक्रिया के साथ। वहाँ आपके पास गलतियों को दोहराने की गुंजाइश नही रहती क्योंकि फ़िल्म निर्माण अपने आप मे सबसे मुश्किल सर्जनात्मक क्रियाकलाप में से एक है। एक साधारण विद्यार्थी से एक पेशेवर फ़िल्म व्यक्तित्व का निर्माण FTII की प्राथमिकता है। मैंने भी वहाँ काफी कुछ सीखा, कुछ बड़ी गलतियाँ की उनसे सीखा, जाना जो उस समय नही पर आज 2 साल बाद मुझे हर मोड़ पर काम आ रही हैं। साथ ही जिस उद्देश्य को लेकर वहाँ गया था जहाँ उसके अपने संसार , उसकी सीमाओं ,उसे बनाने में आने वाली बाधाओं /समस्याओं से रूबरू होने का मौका मिला पर एक मूलभूत तरीके से । एक वाक्य में कहूँ तो पहले यही सोचता था कि साहित्य के किसी भी विधा (उपन्यास, कहानी, नाटक) इत्यादि जो लिखा हुआ है उस पर अच्छी फिल्म बना सकता हूँ पर वहाँ के बाद ये अच्छी तरह समझ आया कि साहित्य में कुछ भी लिखा हुआ सिनेमा में परिणत नही किया जा सकता।

सवाल – उद्वेग फिल्म के बनने की प्रक्रिया क्या रही? तथा इसे रिलीज करने के बारे में क्या सोचा है कब तक आम जन के लिए उपलब्ध हो सकेगी?

ये सरकारी फ़िल्म है तो पूरा अधिकार IB मिनिस्ट्री का है, रिलीज़ तो हो नही सकती कभी। आम जन फ़िल्म फेस्टिवल या मेरे द्वारा दिए गए प्राइवेट लिंक द्वारा ही इसे देख सकते हैं।

सवाल- फिल्म निर्माण की प्रक्रिया के दौरान का कोई रोचक किस्सा?

3 4 जगह… फ़िल्म में एक जगह असल में पत्नी की जगह किसी और महिला से काम कराया गया है, जिसे फिल्मी भाषा मे चीट करना कहते हैं। फ़िल्म निर्माण में खाने का बहुत ध्यान रखा जाता था क्रू का ताकि सभी जोश के साथ काम करे। इसका फायदा मिला खासकर लाइट, कैमरा, साउंड वाले और हमारे डी ओ पी साहब जो रोज बिरयानी , पेटिस, केक, कचौड़ी, समोसे पाकर प्रफुल्लित रहते थे।

सवाल – फिल्म निर्माण में किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा? क्या आप कभी अपने स्तर पर फिल्म बनाएंगे तो कोई मुश्किलों का सामना करना पड़ा तब भी क्या आप उस प्रोजेक्ट को करना चाहोगे? हिट और फ्लॉप के दायरे की सोच से परे रहकर?

पहली बार तो ये कि जब कहानी लिखी जा रही थी तब पुणे शहर में बेहद ज्यादा बारिश हो रही थी, उस कारण मैंने अपने अधिकतर दृश्य बारिश के साथ लिखे ताकि बरसात होने पर भी हम शूट करके अपना वक़्त बचा सके। दुर्भाग्य से मेरे शूट के 4 दिन ही बारिश नही हुई…. जिस कारण मुझे बारिश के सभी दृश्य नकली बारिश और sound effect द्वारा क्रिएट करने पड़े।

Director Suman Kumar Interview सुमन कुमार का इंटरव्यू

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और दूसरी बार अंतिम दृश्य में न चाहते हुए भी एक कुत्ता कहीं से दृश्य में अपनी पूंछ दिखता आ गया। वैसे शाम को आखिरी दिन नेचरल लाइट कम थी और वह टेक इतना बढ़िया था कि दोबारा लेने का वक़्त नही रह तो कुछ सेकेंड के लिए हमने मान लिया कि इस कुत्ते की पूँछ कोई मुसीबत नही खड़ी करेगी। दिक्कत बाद में हुई जब फ़िल्म का सेंसर कराने में animal welfare board का no animal harrasment certificate मांगा गया और मात्र उस कुछ के 3, 4 सेकेंड आने के चक्कर मे animal welfare board को 2200 रुपये का एक ड्राफ्ट साथ ही माफ़ीनामा की अमुक कुत्ते का प्रयोग मैंने जानबूझकर अपनी फिल्म में नही किया है यह कहते हुए जमा करना पड़ा। जिसके बाद ही censor की तमाम प्रक्रिया आगे बढ़ पाई।

तीसरी बार फ़िल्म में जल्लाद के वापस इसी काम को करने की तरफ जाने का कोई ठोस आधार नही मिल रहा था, एक बार अचानक डॉक्यूमेंट्री में प्रयोग किये इस खंडहर घर की तरफ मैं लोगों से मिलने गया और उनकी खस्ताहाल हालत देखकर अचानक यह दयनीय स्थिति खुद ही सामने आई कि आखिर क्यों जल्लाद को इतनी जल्दी थी कि उसे घर छोड़ने की जल्दी हो और पैसों की मजबूरी भी। सौभाग्य से अगर उस वाड़े (घर) के सभी लोग (तकरीबन 15 परिवार) साथ न देते और कमोबेश उसकी वस्तुस्थिति खुद ही इतनी बुरी स्थिति मे थी कि मेरी पटकथा में एक नए और महत्वपूर्ण कारण और स्थान का खुद ही समावेश हो गया।

About the author

Tejas Poonia

लेखक - तेजस पूनियां स्वतंत्र लेखक एवं फ़िल्म समीक्षक हैं। साहित्य, सिनेमा, समाज पर 200 से अधिक लेख, समीक्षाएं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं, पोर्टल आदि पर प्रकाशित हो चुके हैं।