फिल्म रिव्यू ‘आँछ्छछी’ (Movie Review Aanchhi)
आम भारतीय परिवारों में चाहे शहरी हों या ग्रामीण कल्चर कोई आपके ऊपर या आपके आस-पास छींक दे तो एक अजीब सी निगाह से देखने लगते हैं। इतना भी न हो तो कम से कम तब तो जरुर अपशकुन सा समझ लेते हैं जब आप कहीं जा रहे हों और कोई घर से बाहर निकलते हुए छींक दे। ये तो हुई शकुन-अपशकुन की बातें। लेकिन अभी बीते साल जब कोरोना आया तो कोई छींक देता तो लोग ज्यादा सावधान होने लगते। वजह आपको अब बताने की जरूरत नहीं। अब आप कहेंगे फ़िल्म रिव्यू करते समय ये छींकों की बातें कहाँ से करने लगे! तो भाईयों और उनकी बहनों जब फ़िल्म का नाम ही ‘आँछ्छछी’ तो बातें भी उसमें छींकों की ही होगी ना?
लेकिन नहीं हमारी प्यारी सी भारतीय सिनेमा की दुनियां के ब्रह्मांड में विचरण कर रहे लोगों के तो दिमाग खुराफ़ाती ही होते हैं न? नाम कोई फ़िल्म की कहानी कोई! ऐसा तो कई बार होता रहता है, नहीं! चलिए आपको फ़िल्म की कहानी बताते हैं तो हुआ कुछ यूँ कि एक चूहे मारने वाला आदमी जो चूहों को मारने का कोंट्रेक्ट लेता है। चूहों को मारने का! सीरियसली? मज़ाक नहीं कर रहा मैं कहानी ही ऐसी है। तो चलिए खैर आज के जमाने में कुछ भी पॉसिबल है। जैसे अपने एक शो का नाम अनुपम खेर ने रखा था याद है? ‘कुछ भी हो सकता है।’ तो यह कोंट्रेक्ट किलर काम तो करता है चूहों को मारने का लेकिन एक दिन उसके पास फोन आता है और इस बार उसे चूहा नहीं आदमी मारना है। ये हुई न बात अब आया कहानी में दम।
क्योंकि ऐसी सुपारी लेने वाली कहानियां हमने फिल्मों में भी खूब देखी है और असल जीवन में घटित होते हुए भी देखी है। चूहे को मारने वाला आदमी जब लाखों रूपये मिलने वाले हों और पहले से उसकी माली हालत कुछ ठीक न हो, ऊपर से मुआ कोरोना आ बैठा हो तो आदमी मरता क्या न करता? पापी पेट का सवाल है जी। क्योंकि पापी पेट माँगता है खाना भरपेट। चूहे मारने वाले आदमी ने कैसे आदमी मारा? मारा भी या नहीं? किसी और को तो नहीं मार आया? कोरोना ने क्या गुल खिलाया उसकी कहानी में? क्या उसे लाखों रूपये मिले? क्या उसकी बीवी सोने के कंगन खरीद पाई? क्या उसके कर्जे पूरे हुए? ये तमाम बातों के सवाल आपको फिल्म में खोजने पड़ेंगे। फिल्म देखते हुए कुछ के जवाब मिलेंगे तो कुछ के नहीं।
इस 25 अगस्त को सिनेमाघरों में चुपके से आकर चुपके से वापस उतर कर चली जाने वाली फिल्मों की बातें ही कौन करता है यहाँ अपने। फ़िल्म में एक्टिंग की बात करें सबसे पहले तो दो-एक लीड स्टार के अलावा दो-एक साथी कलाकारों को छोड़ सब छींक ही मारते नजर आते हैं। रही सही कसर इसका बी.जी.एम कई जगहों पर इतना लाउड होकर छींकता है कि मत ही पूछिए! कहानी तो कुलमिलाकर फिल्म के लेखकों ने अच्छी बुनने की कोशिश की लेकिन उसकी बुनाई करते समय स्क्रिप्ट ने जो छेद किये इसमें और फैल-फैल कर इसका जो रायता बनाया उसे देखते हुए आपके सब्र की सीमा छूटने लगती है। आप जल्दी से जान लेना चाहते हैं कि भाई आखिर कहानी कहना क्या चाह रही है? क्यों कत्ल करवाया जा रहा है? क्यों सुपारी दी जा रही है? और फिर जैसे ही क्लाइमेक्स आता है तो आप राहत की सांस लेते हुए बाहर आते हैं और एक जोरदार छींक मारते हैं। इस छींक को प्रतीकात्मक लिया जाए तो आप फ़िल्म में बीच-बीच में हंसते भी हैं। सर दर्द का अहसास भी होते हुए पाते हैं, राहत की सांस भी लेते हैं, बस कहानी बहुत फैली हुई थी, बैकग्राउंड स्कोर बहुत लाउड था कहकर घर आ जाते हैं।
प्रो. शिशिर बक्षी के रूप में ‘सुब्रत दास’ , चमन के रूप में ‘इश्तियाक खान’ , संगीता के रूप में ‘सुनीता राजवर’ जंचते हैं और अच्छा काम करते नजर आते हैं। सुनीता राजवर ने आम घरेलू महिला के भावों को बखूबी पकड़ा है तो वहीं इश्तियाक खान भी कुछ कम नहीं रहे। खेमचंद वर्मा, विनार सिंघनाथ, नीरज खेतरपाल, नेहपाल गौतम, जयंत गाडेकर आदि बस जैसे फ़िल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हों। अभिनय के नाम पर तो ये सब बस औसत ही रहे।
निर्देशक ‘लकी हंसराज’ चाहें तो आगे अच्छी फ़िल्में बना सकते हैं निर्देशन को बेहतर कर सकते हैं। बस उन्हें साथ चाहिए अपना खुद का ही और उसके साथ अच्छी कहानी का साथ ही साथ रायता न फैलाने की कोशिश करें अगली बार तो उम्मीद है लम्बा खेल पायें। क्योंकि वैसे भी उनके नाम पर इसी तरह की कुछ नामालूम अज्ञात सी फ़िल्में दर्ज हैं। दिक्कत दरअसल तब होती है जब आप कुछ दक्षिण जैसा बनाते रहने की कोशिश में न दक्षिण हो पाते हैं और न उत्तर। फिर पूरब और पश्चिम तो आपका खराब करेगी ही दुनियां, नहीं?
फ़िल्म को थोड़ा और कसा जाता थोड़ी छींके सिनेमाई पर्दे पर कम जोर से मारी जातीं तो यह उम्दा छींक हो सकती थी। लेकिन जब तक आप अच्छे संवादों के साथ-साथ अच्छे डायलॉग और अच्छी कैंची इस्तेमाल नहीं करेंगे एडिटर साहब तो कैसे चलेगा।
अपनी रेटिंग – 2.5 स्टार